Saturday 30 July 2011

मुलाक़ात





कुछ  पल  तो  हँसने दे  मुझे,ना  उदास   कर 
तू   घर  जाने  की  बातें,ना  बार  बार  कर 

दो  लम्हे  बीते  होंगें,साथ  बैठे  हुए 
तू  सदियों  की  बातें,ना  बार  बार  कर 

अभी  डूबना  बाकी है  तेरी  आँखों  में मेरा     
तू  नज़रें झुका  के  बातें,ना  बार  बार  कर 

इन  कांपते  लबों  को  कहने  दे  आज  सब 
तू  जमाने  की  बातें,ना  बार  बार  कर 

मैं  फूल  हूँ,जुल्फों  में  रख,महकता  रहूँगा 
तू  घर  सजाने  की  बातें,ना  बार  बार  कर 

kumar


Friday 22 July 2011

माँ ....


एक अरसा हो गया माँ,
तेरे हाथ के मोटे मोटे रोट खाये हुए
वो गीले उपलों को जलाने की जद्दोजहद में
तेरे आंचल का गीला होना
अब भी याद है मुझे...

एक अरसा हो गया माँ,
सिर पर तेरा हाथ महसूस किये हुए
जो चादर तूने दी थी,
मेरे घर से चलते समय
उसकी तहें अब तक लिपटी पङी हैँ.....

एक अरसा हो गया माँ,
मुझे रोये हुए
अपने हाथों से मेरे आंसू पोंछते वक्त
ना रोने की इक कसम दी थी तूने,
वो अब तक सँभाल रखी है मैने.....

एक अरसा हो गया माँ,
खुदा को देखे हुए,
एक अरसे से मैं बस यूँ ही जी रहा हूँ माँ.....
kumar

Saturday 16 July 2011

ना जाने कब ?

ना जाने कब तक बेबस ज़िन्दगी तबाह होती रहेगी ?
ना जाने कब अमन का सूरज अपनी धूप इस जमीं पर बिखेरेगा ?
ना जाने कब लौटेगा वो शख्स जो गया था यह कहकर कि " बस अभी आया " ?
रह रहकर बस यही खयाल आता है कि -



ऐ खुदा तू भूख को भी बम बना देता
तो हर शख्स सर से कफन हटा देता ।

हमसे पूछो पल पल मरने का सबब
काश कोई यूँ ही गर्दन दबा देता ।

ग़र यूँ ही मरना है तो क्या परिबार क्या बच्चे
क्या कशिश कोई माँ का आँचल ओढा देता ?

हजारों काम हैं करने पर किसको करूं पहले ?
मुझे ऐ काश कोई मौत का दिन ही बता देता ।

ये दर्द ना होता इस मासूम शहर में
ग़र काफ़िरों को वो अपना ईमां नहीं देता ।

-kumar

Thursday 7 July 2011

खलिश

बङा अजीब System है life का भी। कुछ भी मिल जाये,फिर भी एक कमी सी महसूस होती रहती है,एक खलिश सी बनी रहती है ।और ये खलिश भी क्या कमाल,जिसका ना कोई इलाज,ना कोई अन्त ।बस एक एहसास होता रहता है जिन्दा होने का ।और इसी एहसास में उम्र गुजर जाती है.......


ज़िंदगी तुझसे शिकायत भी है,और है गिला,
बहुत कुछ दिया तूने,बस कुछ भी न मिला

कुछ को मिल गया बेवक़्त गुलाबों का शहर,
मुझे चुभते हुए काटों का चेहरा भी न मिला

एक उम्मीद थी सो जल गया तेरी शम्मे में,
पर आँधियों को तब तक मेरा खत भी न मिला

किसने कहा इन्सां में खुदा बसता है,
बहुत ढूंढा मगर मुझको पत्थर भी न मिला

फकत ईटों के बने हैं इस शहर के मकां सारे,
क्यूँ आज तक मुझे मेरा घर भी न मिला  ?

सच बोलकर सबको,दुश्मन बना लिया,
इस रूह को अब तक कोई खंजर भी न मिला

अपनी जात में अब तक,मैं खुद से बाकिफ था मगर,
मिला हर जगह आईना,क्यूँ पत्थर भी न मिला ??

-kumar

Tuesday 5 July 2011

इन्तजार


क्या खूब खिलौने जुटा रखे हैं
बालू के ढेर पर,इस बच्चे ने
कुछ गारे की परतें,कुछ बिखरती ईटों के टुकङे
सुलगते लू के थपेङे भी बहला रहे हैं धीरे धीरे
सूखती आँखों को बस इन्तजार है
उस दीबार के पूरे होने का
फिर तकती नजर रोयेगी
और दौङकर आयेगी माँ
छोङकर फाबङे को
फिर बरसेगी ममता टूटकर
और बह जायेँगे झूठे खिलौने......

kumar...

Monday 4 July 2011

उम्मीद


हर बार उम्मीद में गिरफ़्तार होकर
कुरेदता हूँ
सूखी परतों को
कभी तो ये नन्ही उगलियाँ
मीलों नीचे दबे सच तक पहुँचेगीं....

kumar...

तुम....


एक जमाने के बाद होठों ने कुछ नमकीन चखा है
कितना वक्त लगा रहीं थीं ये बूँदें
गालों के रेगिस्तान को तर करने में
आज फिर सजग हो उठे हैं
अतीत के पहरेदार
आज फिर तुम
यादों की चौखट पर दस्तक देकर गुजर गये.....

kumar

Saturday 2 July 2011

काश...


काश ऐसी कोई जगह होती
जहाँ बस मैं और तुम होती
समंदर का किनारा होता और खामोश लहरें होती
शाम के ढलते सूरज में,गहरी लालिमा होती
पक्षियों के काफिले की मीठी चहकन होती
हर तरफ अन्धेरा,आसमां में रौशनी होती
सूखें पत्तों का बिछौना,हबाओं की चादरें होती
तेरी गोद में मेरा सिर और उस पर घनी ज़ुल्फें होती
आँखों में ठहराव और बालों में उगलियाँ होती
धीमी बरसती बूंदें और साँसों में तपिश होती
हय़ा से भीगे लबों पे एक शर्माती चुभन होती
लम्हा लम्हा गिरवीं होता और बक्त की जमानत होती
बस ज़िन्दगी सिमटकर ये हसीं ख़्वाब होती
काश ऐसी कोई जगह होती
जहाँ बस मैं और तुम होती...

-kumar

जमीं पे कर चुके कायम हदें, चलो अब आसमां का रुख करें  - अरविन्द