Friday 6 April 2012

कशमकश...





तेरी हर बात पर मैं कितना ऐतबार करता हूँ 
नादाँ हूँ,या तू मुझसे अन्जान बनता हैं ?


 कभी तो देख डूबकर मेरी आखोँ मेँ हमनशीँ,
दीबाना हूँ,या तू मुझसे अन्जान बनता है  ?


मुझे मौका तो दे या कर ले फ़ना खुद मेँ,
बेसबर हूँ,या तू मुझसे अन्जान बनता है ?


तेरी इक इक अदा मेरी नज़रों मेँ क़ैद है,
आइना हुँ,या तू मुझसे अन्जान बनता है ?


तेरे कदमों की आहट से रौशन है मेरा नसीब,
ज़र्रा हूँ,या तू मुझसे अन्जान बनता है ?


खुदा कैसा मेहरबां है तेरी सादादिली पे भी,
वो तुझसा है या तू मुझसे अन्जान बनता है ?


- kumar

जमीं पे कर चुके कायम हदें, चलो अब आसमां का रुख करें  - अरविन्द