Thursday, 19 May 2011

खयाल



एक  शाम  सोचा  मैने
आज  सूरज  से  पूछता  हूँ 
कहाँ  जाकर  छुप  जाता  है  रोज,
पेरों  के  निशान  के  बिना 
आँखों  में  बाँधा  उसकी  तस्वीर  का  धागा 
और  चल  पडा,
थक  हारकर  जब  पहुँचा उसके  ठिकाने  पर 
तो  मंज़र  बदल  चुका  था 
लगता  है  आज फिर,
उसे  जाने  की  जल्दी  थी..........


-kumar

7 comments:

tamanna said...

arvind sahab main yeh jana chahati hoon ki jab yeh nazm aap ne likhi toh ky soch kar lekhi?

Arvind kumar said...

pata nahin aapko kaisi lagi ???

lekin wo sham kuchh alag thi baki se........



kaash wo lamha lakar men
teri hatheli par saja pata
aur tujhe mahsus hota ki
is lamhe ne meri jindgi ke maayane hi badal diye.........

Yashwant R. B. Mathur said...

विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
कल 07/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

Bharat Bhushan said...

छिपते सूरज का पीछा करना अपने आप में महती भावना है. सुंदर.

सदा said...

वाह ...बहुत खूब ।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

ये शाम भी अजीब है....

विभूति" said...

बहुत ही सुन्दर....

जमीं पे कर चुके कायम हदें, चलो अब आसमां का रुख करें  - अरविन्द