क्या मज़ाक चल रहा है परिंदों के बीच,
आसमां को दौड़ का मैदान बना रखा है
बड़ी हसरत थी उसे टूटकर बरसने की,
मगर हौँसले ने उसे बेकरार बना रखा है
जो हँसता हुआ आया, उसे क़ातिल समझ बैठे,
याँ हर शख्स ने आहों से आस्तान सजा रखा है
मैँ घर गया तो माँ का आंचल न सूखेगा,
उन आँखों में बरसों से सब्र पला रखा है
वो इक रोज़ कुछ सोचकर फिर बदलेगा अपना फ़ैसला,
इसी उम्मीद ने इक लाश को इंसान बना रखा है
शहर में फिर कहीं इंसानियत नंगी हुई होगी,
शर्मिन्दगी ने कल से मुंह छुपा रखा है
- अरविन्द
8 comments:
उम्दा..
Behtareen..bahut khoob
बहुत सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति ..मन को छू गयी .आभार . मेरी किस्मत ही ऐसी है .
साथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3
waah bahut khub ......
apki is lekhni se meri bhi ek kavita ban gayi hai
kuch dino mein main use apne blog par dalungi
ji bahut bahut shukriya
Achha likha..
बहुत उम्दा
सुंदर और सार्थक
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