Tuesday, 5 July 2011

इन्तजार


क्या खूब खिलौने जुटा रखे हैं
बालू के ढेर पर,इस बच्चे ने
कुछ गारे की परतें,कुछ बिखरती ईटों के टुकङे
सुलगते लू के थपेङे भी बहला रहे हैं धीरे धीरे
सूखती आँखों को बस इन्तजार है
उस दीबार के पूरे होने का
फिर तकती नजर रोयेगी
और दौङकर आयेगी माँ
छोङकर फाबङे को
फिर बरसेगी ममता टूटकर
और बह जायेँगे झूठे खिलौने......

kumar...

4 comments:

संजय भास्‍कर said...

ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है

Ravi Rajbhar said...

Bilkul Bhaskar bhaiya se me bhi sahmat..
bas ek hi shabd...gazab.

Rashmi Garg said...

bahut khoob.....

Raju Patel said...

कुमार साहब....आप बहुत कमाल की रचनाएं लिखते है....बहुत बहुत धन्यवाद.

जमीं पे कर चुके कायम हदें, चलो अब आसमां का रुख करें  - अरविन्द