सच को शिकायत है, कोई इधर नही आता,
मंहगाई इतनी है,सस्ता ज़हर नही आता
मैने जब भी कुछ मांगा,ख़ुदा ने झूठ ही बोला,
उसके इलाक़े में,मेरा घर नही आता
मेरी ग़लती फ़क़त इतनी है,कि मैं इंसां हूँ,
मुझको सियासत करने का हुनर नही आता
ये बुतपरस्तोँ का शहर है, बच्चे भूखे मरें तो मरें,
करोड़ों उस ख़ुदा पर चढ़ते हैं, जो नज़र नही आता
वालिद के तंज आज तक दिल में हैं मगर,
माँ रोती बहुत होगी, बेटा घर नही आता
ये दुनियाँ बदल गयी है, या मेरी आँखों का तरजुमा, ?
ये दुनियाँ बदल गयी है, या मेरी आँखों का तरजुमा, ?
जैसा बचपन में दिखता था, बैसा नज़र नही आता
- कुमार
11 comments:
आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 20/03/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
बहुत उम्दा गजल,,,
Recent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,
वाह...!
बहुत सार्थक प्रस्तुति!
आभार!
ये दुनियाँ बदल गयी है, या मेरी आँखों का तरजुमा, ?
जैसा बचपन में दिखता था, बैसा नज़र नही आता
बहुत बदल गई है ये दुनिया और दिन पर दिन बदलती जा रही है... सार्थक प्रस्तुति... आभार
Lajawab...
Bahut achha likha hai bhai.. bahut shubhkaamnayen aapko!!
ये बुतपरस्तोँ का शहर है, बच्चे भूखे मरें तो मरें,
करोड़ों उस ख़ुदा पर चढ़ते हैं, जो नज़र नही आता
bahut sundar gazal.
मेरी ग़लती फ़क़त इतनी है,कि मैं इंसां हूँ,
मुझको सियासत करने का हुनर नही आता
बहुत सुन्दर ...
पधारें "चाँद से करती हूँ बातें "
waah bahut khub ....एक अलग ही अंदाज़ है आज तो
Waah!!! Bahut sundar...
वाह !
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