तेरी बातों पे ऐतबार न करता,तो क्या करता ?
मरना था कई बार,जो इक बार मरता तो क्या मरता ?
कहकर ख़ुदा तुझको ख़ुदा से दुश्मनी ली,
ग़र यह नही करता,तो क्या करता ?
मिटाकर खुद को खुद से ही ढूँढे हैं निशाँ तेरे,
ग़र सज़दा नही करता,तो क्या करता ?
मैं मुज़रिम हूँ जमाने का सजा चाहता हूँ बस तुझसे,
ग़र उम्मीद ना करता,तो क्या करता ?
खफा है मुझसे अब तक तू कि मैं ज़ज्बाती हो गया,
ग़र यह बात ना करता,तो क्या करता.... ???
- Kumar
6 comments:
कहकर ख़ुदा तुझको ख़ुदा से दुश्मनी ली,
ग़र यह नही करता,तो क्या करता ?
वाह... बहुत खूब...
मैं मुज़रिम हूँ जमाने का सजा चाहता हूँ बस तुझसे,
ग़र उम्मीद ना करता,तो क्या करता ?
Khoob Kaha...
बहुत खूब..
खूबसूरत अहसास ...इस दिल के
बहुत ही बढ़िया रचना...
:-)
खूबसूरत
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