Saturday 2 July 2011

काश...


काश ऐसी कोई जगह होती
जहाँ बस मैं और तुम होती
समंदर का किनारा होता और खामोश लहरें होती
शाम के ढलते सूरज में,गहरी लालिमा होती
पक्षियों के काफिले की मीठी चहकन होती
हर तरफ अन्धेरा,आसमां में रौशनी होती
सूखें पत्तों का बिछौना,हबाओं की चादरें होती
तेरी गोद में मेरा सिर और उस पर घनी ज़ुल्फें होती
आँखों में ठहराव और बालों में उगलियाँ होती
धीमी बरसती बूंदें और साँसों में तपिश होती
हय़ा से भीगे लबों पे एक शर्माती चुभन होती
लम्हा लम्हा गिरवीं होता और बक्त की जमानत होती
बस ज़िन्दगी सिमटकर ये हसीं ख़्वाब होती
काश ऐसी कोई जगह होती
जहाँ बस मैं और तुम होती...

-kumar

6 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत बढ़िया,
बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....

Ravi Rajbhar said...

Sawan ki halki fuhar ... aur apki pyar se bhigi rachna.....!
ji bas puchhiye mat ham to pura bhig gaye.

bahut hi sunder..
keep it up.:):)

Rashmi Garg said...

kya baat hai....nishabd ho gyi hu mai to....kya taarif kru....

shephali said...

काश की ऐसी कोई जगह होती
जहाँ मेरी आवाज़ तुम्हारे कानो तक नहीं
तुम्हारे दिल तक पहुँचती

बहुत ही खुबसूरत रचना

vidya said...

बहुत बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति...

मेरा मन पंछी सा said...

प्यार के वो खुबसुरत पल कि तलाश में
बहूत सुंदर नाजारो को व्यक्त कर दिया है...
बेहद कोमल अहसास से भरी बेहतरीन
प्यारभरी रचना है

जमीं पे कर चुके कायम हदें, चलो अब आसमां का रुख करें  - अरविन्द