तेरी हर बात पर मैं कितना ऐतबार करता हूँ
नादाँ हूँ,या तू मुझसे अन्जान बनता हैं ?
कभी तो देख डूबकर मेरी आखोँ मेँ हमनशीँ,
दीबाना हूँ,या तू मुझसे अन्जान बनता है ?
मुझे मौका तो दे या कर ले फ़ना खुद मेँ,
बेसबर हूँ,या तू मुझसे अन्जान बनता है ?
तेरी इक इक अदा मेरी नज़रों मेँ क़ैद है,
आइना हुँ,या तू मुझसे अन्जान बनता है ?
तेरे कदमों की आहट से रौशन है मेरा नसीब,
ज़र्रा हूँ,या तू मुझसे अन्जान बनता है ?
खुदा कैसा मेहरबां है तेरी सादादिली पे भी,
वो तुझसा है या तू मुझसे अन्जान बनता है ?
- kumar
12 comments:
सुंदर रचना ...
शुभकामनायें ...
बहुत सुन्दर रचना...
पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...
....... बहुत खूबसूरत ग़जल है सभी पंक्तियाँ लाज़वाब! रचना के लिए बधाई स्वीकारें.
बहुत खूब .........भले ही सबसे अनजान रहे ...पर खुद से कभी नहीं
सुन्दर रचना!!
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
खूबसूरत गजल
अच्छी और भावपूर्ण रचना |
आशा
खूबसूरत.....
वाह........
बहुत खूबसूरत............
सुन्दर अभिव्यक्ति!!
♥
तेरी हर बात पर मैं कितना ऐतबार करता हूं
नादां हूं , या तू मुझसे अन्जान बनता हैं ?
होता है कई बार …
पूरी तरह समर्पित होने के बावजूद भी किसी किसी का विश्वास जीतना मुश्किल होता है …
प्रिय बंधुवर अरविंद कुमार जी
सस्नेहाभिवादन !
अच्छा लिखा है , और श्रेष्ठ लिखने की मंगलकामना करता हूं …
हार्दिक शुभकामनाएं !
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
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