Monday 27 June 2011

प्रेम


अब सब कुछ ओस की तरह लगता है,
सब नया,निर्मल,
अंकुरित होते पौधे जैसा...
एक ठहराव सा है...
ह्रदय के भँवर में उठने बाली,
भावनाओं की लहरें
अब असमर्थ हैं,
उम्मीद की दीवारों पर,
उस प्रतिध्वनि को उत्पन्न करने में,
जिसके शोर में भ्रमित होकर,
मैँ भटकता था इधर उधर...
जो मन रूपी पक्षी,
उन्मुक्त हो,
उड़ता था अनंत आकाश में,
वो अब लिपटा पड़ा है अस्तित्वहीन डाल से...
कल तक जो नकारता था हर अस्तित्व को,
आज वही,
निराकार का सृजन करने में लगा है...
यह कोई बदलाव नहीं है,
ना पुर्नजन्म है...
बस,
अब मेरे अंदर एक दीप जल उठा है,
प्रेम का...
कुछ बीज अंकुरित होने लगे है,
मिलन के...

-Kumar .

6 comments:

Nidhi said...

प्रेम....ढाई आखर गज़ब का...सारी दुनिया अपने में समेटे

मीनाक्षी said...

जितनी खूबसूरती से प्रोफाइल में अपना परिचय दिया है उतने ही खूबसूरत भाव हैं... ढेरों शुभकामनाएँ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरती से अपने जज़्बात लिखे हैं ..

रेखा said...

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति

vandana gupta said...

वाह बस अब इसे पूर्ण वृक्ष बनने दो।

मेरा मन पंछी सा said...

बस
अब मेरे अंदर एक दीप जल उठा है
प्रेम का
कुछ बीज अंकुरित होने लगे है
मिलन के ।
बहूत सुंदर लिखा है.....

जमीं पे कर चुके कायम हदें, चलो अब आसमां का रुख करें  - अरविन्द