क्या मज़ाक चल रहा है परिंदों के बीच,
आसमां को दौड़ का मैदान बना रखा है
बड़ी हसरत थी उसे टूटकर बरसने की,
मगर हौँसले ने उसे बेकरार बना रखा है
जो हँसता हुआ आया, उसे क़ातिल समझ बैठे,
याँ हर शख्स ने आहों से आस्तान सजा रखा है
मैँ घर गया तो माँ का आंचल न सूखेगा,
उन आँखों में बरसों से सब्र पला रखा है
वो इक रोज़ कुछ सोचकर फिर बदलेगा अपना फ़ैसला,
इसी उम्मीद ने इक लाश को इंसान बना रखा है
शहर में फिर कहीं इंसानियत नंगी हुई होगी,
शर्मिन्दगी ने कल से मुंह छुपा रखा है
- अरविन्द